उठा भी दिल से अगर मेरी चश्म-ए-तर में रहा ख़ुदा का शुक्र है तूफ़ान घर का घर में रहा न जाने कौन सी उस में कशिश थी पोशीदा तमाम उम्र वो चेहरा मिरी नज़र में रहा सितम शिआ'र से हम जीते जी ये क्यों कह दें कि हौसला न हमारे दिल-ओ-जिगर में रहा न रोक पाऊँगा हरगिज़ मैं तेरी रुस्वाई तू अश्क बन के अगर मेरी चश्म-ए-तर में रहा वो मेरी तरह भी ख़ाना-ख़राब क्यों रहता बना के दिल को मिरे घर वो अपने घर में रहा फ़ना के बाद भी की है तिरी क़दम-बोसी मैं ख़ाक हो के भी तेरी ही रहगुज़र में रहा गया जो ताज मिली बा-कमाल दरवेशी ज़माना यूँ भी मिरे हल्क़ा-ए-असर में रहा ज़रूर हो न हो तू था मुझी में पोशीदा ये ज़ौक़-ए-सज्दा हमेशा जो सर के सर में रहा गया जो मंज़िल-ए-मक़्सूद तक तो दीवाना ये अहल-ए-होश हमेशा अगर-मगर में रहा है 'एहतिशाम' ज़माने में बढ़ के एक से एक वो कौन है कि जो यकता किसी हुनर में रहा