उठा रहे हो जो यूँ अपने आस्ताँ से मुझे निकाल क्यूँ नहीं देते हो दास्ताँ से मुझे ख़बर नहीं है कि मैं किस घड़ी चला जाऊँ सदाएँ आने लगीं अब तो आसमाँ से मुझे ये जानता ही नहीं हूँ कहाँ मैं भूल आया वो एक राज़ जो कहना था राज़-दाँ से मुझे निकाल सकता नहीं हूँ मैं दिल से हुब्ब-ए-हुसैन विरासतों में मिली जो कि अपनी माँ से मुझे मैं जानता हूँ अगर आज तुम गँवा दोगे तलाश करना है कल तुम ने फिर यहाँ से मुझे जो ज़ख़्म ज़ख़्म हूँ ता'नों के तीर खा खा के तो मार क्यूँ नहीं देते हो अब के जाँ से मुझे गुज़र गया है जो लम्हा वो फिर नहीं आया मिला है दर्स यही उम्र-ए-राएगाँ से मुझे पहुँच तो जाऊँगा मैं भी यक़ीं के साहिल पर निकाले कोई तो 'अरशद' पर इस गुमाँ से मुझे