तारी रहेगा सोच पे वहशत का भूत क्या टूटेगा किसी तौर ये शब का सुकूत क्या पड़ती नहीं है आँख के साहिल पे सुर्ख़ धूप करता मैं आरज़ूओं के लाशे हनूत क्या तुम ने कहा तो ज़हर भी पीना पड़ा मुझे अब इस से बढ़ के दूँ तुम्हें सच का सुबूत क्या कैसे कपास के लिए गंदुम को छोड़ दूँ मिटती नहीं है भूक तो कातूं मैं सूत क्या मेरी नज़र भी तालिब-ए-दीदार-ए-हीर है मलना पड़ेगा जिस्म पे मुझ को भबूत क्या 'अरशद' हमारे हाथ से फिस्लेगी एक दिन पहले बचा सका कोई साँसों की हूत क्या