उठाए दोश पे तारीख़-ए-हादसात-ए-जहाँ गुज़र रहा है दयार-ए-हयात से इंसाँ बिछा रहा है फ़ज़ाओं में दाम-ए-काहकशाँ तिरे गुदाज़ बदन का तबस्सुम-ए-पिन्हाँ लबों पे लाख लगाए कोई सुकूत की मोहर मगर ख़मोशी न होगी जराहतों की ज़बाँ भड़क उठे न कहीं फिर चराग़-ए-ज़ख़्म की लौ सँभल सँभल के सुनाओ हदीस-ए-शहर-ए-बुताँ धुआँ धुआँ सी मिली है फ़ज़ा-ए-शहर-ए-जुनूँ बुझी है रात गए जब भी मशअ'ल-ए-ज़िंदाँ ये वो जहाँ है कि हर शहर-ए-संग-ओ-ख़िश्त के बा'द क़दम क़दम पे है 'इशरत' दयार-ए-शीशा-गराँ