उठाएगी जो रुख़-ए-यार से नक़ाब हवा करेगी दीद से मुझ को भी फ़ैज़याब हवा भरोसा कर के मैं उलझा हूँ मौज-ए-दरिया से लिखेगी अज़्म का मेरे भी क्या निसाब हवा उड़ा के ले गई मंज़र सभी निगाहों से दिखा रही है मुझे देखो कैसे ख़्वाब हवा किया है शिकवा अँधेरों ने आज बस्ती में सता रही है चराग़ों को बे-हिसाब हवा खिले हैं फूल अदावत के हर तरफ़ 'अहमद' ज़माने-भर में चली है बड़ी ख़राब हवा