ज़िंदगी का हर इक ग़म उठाते हुए मैं सँभलने लगा लड़खड़ाते हुए लाख हम ने छुपाया मगर क्या कहे अश्क जारी हुए ग़म छुपाते हुए मैं ने देखा है छत पर उन्हें रात को 'मीर' की एक ग़ज़ल गुनगुनाते हुए रंज-ओ-ग़म में गिरफ़्तार था इस क़दर रो पड़ा हाल अपना सुनाते हुए हाथ उस के लरज़ने लगे थे बहुत जाम-ए-उल्फ़त मुझे कल पिलाते हुए