वफ़ा का ज़िक्र हो बे-मेहरी-ए-बुताँ की तरह यहाँ ख़ुलूस भी अर्ज़ां है नक़्द-ए-जाँ की तरह कभी जो हाल-ए-दिल-ए-ख़ूँ-चकाँ का ज़िक्र चले सुनाइए उन्हें रूदाद-ए-दीगराँ की तरह सरों के चाँद फ़रोज़ाँ हैं राह-ए-उल्फ़त में चमक रही है ज़मीं आज कहकशाँ की तरह किसी मसीह के क़दमों की आहटें सुन कर सलीब झूम उठी शाख़-ए-आशियाँ की तरह कहाँ से लाइए रानाई-ए-ख़याल 'शमीम' सुबू-ए-दिल भी है ख़ाली सुबू-ए-जाँ की तरह