वही बर्बादी-ए-गुलशन का मूजिब थे और अब भी हैं चमन सारा हो इस से आश्ना तो क्या तमाशा हो कोई पत्ता बिना जिस के इशारे के नहीं हिलता कटहरे में गर आए वो बला तो क्या तमाशा हो ख़ुदाई आफ़तों से वो बला मर सकती है लेकिन किसी इंसाँ से हो ये हादिसा तो क्या तमाशा हो तमाशा देस का जिस ने बना रखा है सदियों से रखें हम उस से उम्मीद-ए-वफ़ा तो क्या तमाशा हो मैं क्या क्या सोचता रहता हूँ जैसे बाद 'हसरत' के हों जो मा'ज़ूल अंदाज़-ओ-अदा तो क्या तमाशा हो