वही हर्फ़ हैं वही ज़र्फ़ हैं वही रोज़-ओ-शब हैं सराब से वो मलाहतों का ख़ुमार सा वो मोहब्बतों के सहाब से न किसी कमान में तीर है न गुलाब हैं किसी हाथ में मिरे शहर के सभी लोग हैं किसी अजनबी सी किताब से तिरे बअ'द भी वही ढंग हैं वही नख़्ल-सोख़्ता रंग हैं वही इंतिज़ार-ए-तुयूर है वही बर्ग-ए-सब्ज़ के ख़्वाब से जो कभी ये बाब-ए-अलम खुला थे हर एक हल्क़ा-ए-चशम में पस-ए-पर्दा-ए-ग़म-ए-दोस्ताँ फ़क़त अपने अपने अज़ाब से मिरी दोस्ती भी अजीब थी वही आश्ना वही अजनबी कभी फूल बाइस-ए-ज़ख़्म था कभी संग भी थे गुलाब से