वही ज़मीन वही दूर आसमानों के दिनों की बात नहीं खेल हैं ज़मानों के दिया-सलाई की तीली भी अब डराती है नज़ारे याद हैं जलते हुए मकानों के हमारे पाँव की ज़ंजीर बनते जाते हैं सजे-सजाए हुए सिलसिले दुकानों के ज़मीन बाल बराबर नहीं हमारे नाम बनाते रहते हैं नक़्शे नए मकानों के उदास कर गया वो 'असअद'-ए-जवाना-मर्ग कि इस अज़ीज़ में कुछ तौर थे दिवानों के