वही सफ़र जो पस-ए-कारवाँ नहीं होता मिरा सफ़र है कभी राएगाँ नहीं होता मैं चाहता हूँ कि अरमान दस्तरस में रहें मुझे पता है कि बाम आसमाँ नहीं होता हज़ार चीख़ों में सुनता हूँ उस की ख़ामोशी कोई भी ज़ख़्म कभी बे-ज़बाँ नहीं होता अगर वो दरिया तिरे शहर से गुज़रता नहीं रवाँ तो होता पर इतना रवाँ नहीं होता मैं ऐसे जलता हूँ जैसे कि बुझ रहा हो कोई तू ऐसी आग है जिस का धुआँ नहीं होता