देख लो तुम ख़ू-ए-आतिश ऐ क़मर शीशे में है अक्स दाग़-ए-महर का इतना असर शीशे में है लोग कहते हैं तिरे रुख़्सार-ए-ताबाँ देख कर शम्अ' है फ़ानूस में या आब-ए-ज़र शीशे में है रात दिन रहती है निय्यत बादा-ए-गुल-रंग में ये परी वो है कि जो आठों पहर शीशे में है साअद-ए-सीमीं से तेरे उस को क्या निस्बत भला तौबा तौबा कब लताफ़त इस क़दर शीशे में है होती है ग़र्क़-ए-अरक़ क्यूँ तू सिवाए बू-ए-गुल और क्या ऐ बुलबुल-ए-शोरीदा-सर शीशे में है मय-कदा तेरा रहे आबाद ख़ुम की ख़ैर हो हाँ पिला दे मुझ को साक़ी जिस क़दर शीशे में है ख़ाक से मेरी भला क्या वक़्त का हो इम्तियाज़ हर घड़ी बन कर बगूला मुन्तशर शीशे में है ये गुमाँ होता है अक्स-ए-महर-ए-सहबा देख कर दाग़-ए-उल्फ़त को लिए ख़ून-ए-जिगर शीशे में है हज़रत-ए-वाइज़ न ऐसा वक़्त हाथ आएगा फिर सब हैं बे-ख़ुद तुम भी पी लो कुछ अगर शीशे में है खिंच सके हरगिज़ मुसव्विर से न तिमसाल-ए-अदम देख लो तस्वीर-ए-जानाँ ता-कमर शीशे में है थोड़ी थोड़ी राह में पी लेंगे गर कम है तो क्या दूर है मय-ख़ाना ये ज़ाद-ए-सफ़र शीशे में है मय पिला कर मुझ से कहते हैं वो हो कर बे-हिजाब चढ़ गई आँखों पे जब ऐनक नज़र शीशे में है क्यूँ न ज़ोर-ए-तब्अ सब अहबाब दिखलाएँ 'हबीब' इम्तिहान-ए-हुस्न नज़्म-ए-यक-दिगर शीशे में है