वहशत दीवारों में चुनवा रक्खी है मैं ने घर में वुसअत-ए-सहरा रक्खी है मुझ में सात समुंदर शोर मचाते हैं एक ख़याल ने दहशत फैला रक्खी है रोज़ आँखों में झूटे अश्क बिलोता हूँ ग़म की एक शबीह उतरवा रक्खी है जाँ रहती है पेपर-वेट के फूलों में वर्ना मेरी मेज़ पे दुनिया रक्खी है ख़ौफ़ बहाना है 'साक़ी' नग़्मे की लाश एक ज़माने से बे-पर्दा रक्खी है