वो रौशनी है कि आँखों को कुछ सुझाई न दे सुकूत वो कि धमाका भी अब सुनाई न दे पहुँच गया हूँ ज़मान ओ मकान के मलबे तक मिरी अना मुझे इल्ज़ाम-ए-ना-रसाई न दे अगर कहीं है तो दिल चीर कर दिखा मुझ को तू अपनी ज़ात का इरफ़ान दे ख़ुदाई न दे अज़ल के टूटते रिश्तों की इस कशाकश में पुकार ऐसी अदा से मुझे सुनाई न दे निकल चुका हूँ मैं अपनी कमान से आगे तअल्लुक़ात-ए-गुज़िश्ता की अब दुहाई न दे