वहशत में सू-ए-दश्त जो ये आह ले गई क्या क्या कुएँ झुकाने तिरी चाह ले गई आए कभी न राह पे क्या जानिए हमें कीधर को ये तबीअ'त गुमराह ले गई काबे में भी गए तो हमें तेरी याद आह फिर सू-ए-दैर ऐ बुत-ए-दिल-ख़्वाह ले गई उस ने कहाँ बुलाया था ये इस के घर हमें नाहक़ ज़बान-ए-ख़ल्क़ की अफ़्वाह ले गई जारूब-कश ने उस के न रहने दिया मुझे गर्दां नसीम शक्ल-ए-पर-ए-काह ले गई जूँ तीर दिल से आह जो निकले तो क्या कहूँ बस जान को भी अपने वो हमराह ले गई 'आसिफ़' चमन में आते ही उस रश्क-ए-गुल की याद क्या जानिए किधर मुझे नागाह ले गई