वहशत-ए-दिल मिरी कश्कोल-ए-गदाई माँगे जिस्म की क़ैद से तदबीर-ए-रिहाई माँगे कितनी हस्सास अदालत है मिरे मुल्क तिरी जो कि मज़लूम से आहों की सफ़ाई माँगे एक क़तरा न पिलाएँ कभी दीदार का जो दिल मिरा ऐसे हसीनों से दुहाई माँगे क्या मैं दूँगा उसे रुस्वाई-ओ-ज़िल्लत के सिवा बाप मेरा कभी मेरी जो कमाई माँगे अभी भटका नहीं पूरी तरह अहसन 'गुलफ़ाम' और थोड़ी सी ज़रा राह-नुमाई माँगे