वहशत-ए-दिल ने कहीं का भी न रक्खा मुझ को देखना है अभी क्या कहती है दुनिया मुझ को असर-ए-क़ैद-ए-तअ'य्युन से भी आज़ाद है दिल किस तरह बंद-ए-अलाएक़ हो गवारा मुझ को लेने भी दे अभी मौज लब-ए-साहिल के मज़े क्यूँ डुबोती है उभरने की तमन्ना मुझ को ख़्वाहिश-ए-दिल थी कि मिलता कहीं सौदा-ए-जुनूँ मैं ने क्या माँगा था क़िस्मत ने दिया क्या मुझ को तेरी बे-पर्दगी-ए-हुस्न ने आँखें खोलीं तंग-दामानी-ए-नज़्ज़ारा थी पर्दा मुझ को आख़िरी दौर में मदहोश हुआ था लेकिन लग़्ज़िश-ए-पा ने मिरी ख़ूब सँभाला मुझ को उम्र सारी तो कटी दैर-ओ-हरम में ऐ 'शौक़' इस पे सज्दा भी तो करना नहीं आया मुझ को