वहशत-ए-दिल सिला-ए-आबला-पाई ले ले मुझ से या-रब मिरे लफ़्ज़ों की कमाई ले ले अक़्ल हर बार दिखाती थी जले हाथ अपने दिल ने हर बार कहा आग पराई ले ले मैं तो उस सुब्ह-ए-दरख़्शाँ को तवंगर जानूँ जो मिरे शहर से कश्कोल-ए-गदाई ले ले तू ग़नी है मगर इतनी हैं शराइत तेरी वो मोहब्बत जो हमें रास न आई ले ले ऐसा नादान ख़रीदार भी कोई होगा जो तिरे ग़म के एवज़ सारी ख़ुदाई ले ले अपने दीवान को गलियों में लिए फिरता हूँ है कोई जो हुनर-ए-ज़ख़्म-नुमाई ले ले मेरी ख़ातिर न सही अपनी अना की ख़ातिर अपने बंदों से तो पिंदार-ए-ख़ुदाई ले ले और क्या नज़्र करूँ ऐ ग़म-ए-दिलदार-ए-फ़राज़ ज़िंदगी जो ग़म-ए-दुनिया से बचाई ले ले