वजूद गरचे मिरा ख़ाक-ए-मुख़्तसर से उठा मह-ओ-नुजूम का हल्क़ा मिरी शरर से उठा बदल गया है मिरी किश्त-ए-जाँ ख़राबे में वो हश्र जो कि तिरी चश्म-ए-फ़ित्नागर से उठा जुनून-ए-शौक़ तो हर पल है गोया पा ब रिकाब तकान कहती है अब पावँ को सफ़र से उठा शराब-ए-वस्ल की मद-होशी है रग-ओ-पै में असीर-ए-ज़ुल्फ़ को अब हुस्न के असर से उठा न क़त्अ की ज़रूरत न एहतियाज-ए-क़फ़स यक़ीन ही जो परिंदे का बाल-ओ-पर से उठा मह-ओ-नुजूम मिरे बख़्त पर थे रशक-कुनां ग़ुबार बन के मैं जब तेरी रह-गुज़र से उठा सवाल-ए-नज़्र-ए-करम क्या कि तेरी दीद के बा'द मैं बे मुराद कहाँ तेरे संग-ए-दर से उठा लरज़ के रह गया क़ातिल भी चंद साअ'त को जब इर्तिआ'श मिरे जिस्म-ए-बे-असर से उठा तमाम उम्र रही उस की जुस्तुजू 'ख़ावर' जो दर्द बन के कभी दिल कभी जिगर से उठा