वजूद-ए-दिल के दरवाज़ों की कुंजी कौन रखता है फ़क़ीरों के बराबर गंज-ए-मख़्फ़ी कौन रखता है वहाँ पहुँचा दिया है मुझ को अंगुश्त-ए-तफ़क्कुर ने जहाँ मेरे सिवा याद-ए-इलाही कौन रखता है ये क़तरा कौन है ये नक़्श-ए-उर्यां बीज है किस का बदन में संग-ए-बुनियाद-ए-मआ'नी कौन रखता है जला कर ख़ैर अश्या को तनूर-ए-चश्म-ए-हस्ती में नज़र कोई बक़ा पर इतनी गहरी कौन रखता है लहू सहबा बदन मीना-ए-ख़ाकी बन गया 'काविश' ज़रा देखो तो यूँ फ़ैज़ान-ए-साक़ी कौन रखता है