वक़ार-ए-इश्क़ बढ़ाने पे तंज़ करते हैं किसी के नाज़ उठाने पे तंज़ करते हैं मैं जान-बूझ के जब इन को छोड़ देता हूँ शिकार मेरे निशाने पे तंज़ करते हैं अजीब बात है यारो हर इक ज़माने में ज़माने वाले ज़माने पे तंज़ करते हैं तुझे ख़बर ही नहीं है ऐ मस्ख़रे कुछ लोग तिरे मज़ाक़ उड़ाने पे तंज़ करते हैं सुरूर-ए-इश्क़ का उन को मज़ा नहीं मा'लूम जो लोग नींद न आने पे तंज़ करते हैं वो जानते हैं कि महफ़िल की आबरू मैं हूँ जो मेरे बज़्म में आने पे तंज़ करते हैं नहीं है शेर-ओ-अदब से जिन्हें लगाव 'ज़फ़र' वो लोग मेरे घराने पे तंज़ करते हैं