वक़्त का सूरज जलन के रूप में जब आ गया संग-तन पर धूप के सैलाब को रोका गया पस्त हिम्मत के ज़रीये हो गया रद्द-ए-अमल हम को बे-मक़्सद दिलासा दे के बहलाया गया बे-ज़बाँ ज़ख़्मों को फ़र्त-ख़्वाहिशात-ए-ज़ीस्त को जो न समझा ग़ैर-ज़िम्मेदार वो समझा गया दर्द की लहरों ने रक्खा मुज़्तरिब अन्फ़ास को नाम के तूफ़ाँ से जिस्म-ए-आरज़ू ढाँपा गया आख़िरी बातों की रूपोशी के वो क़ाइल न थे कहने वालों को मगर कहने से भी रोका गया हम बचाते ही रहे उस को मोहब्बत से 'हसीर' अपनी हरकत से मगर वो ख़ुद यहाँ पकड़ा गया