वक़्त की दस्तरस से बाहर हूँ मैं नए क़ाफ़िए का मसदर हूँ मुझ को इस पार सोचने वाले मैं तिरे सामने का मंज़र हूँ ये अभी तक नहीं खुला मुझ पर घर में होते हुए भी बे-घर हूँ मुझ को आँखें पसंद आती हैं मैं किसी शाम का मुक़द्दर हूँ मैं क़लंदर मिज़ाज हूँ 'राहिल' दश्त की ख़ामुशी का मज़हर हूँ