वक़्त की रफ़्तार को परखा करो बंद हर झगड़े का दरवाज़ा करो मुँह से निकली बात की होगी पकड़ आगे पीछे सोच कर बोला करो सिर्फ़ ग़ैरों की ज़बानें सीख कर मशवरा है ख़ुद को मत गूँगा करो अह्द पूरा ही नहीं करना है जब ज़िंदगी भर वा'दा-ए-फ़र्दा करो तुम अगर नाज़ाँ हो अपने आप पर वक़्त-ए-फ़ुर्सत आइना देखा करो शहर की आख़िर ये हालत कब तलक अहल-ए-दरभंगा ज़रा सोचा करो हर तरफ़ 'अंजुम' नए मज़मून की ढेर सी हैं तितलियाँ पकड़ा करो