वक़्त पर इश्क़-ए-ज़ुलेख़ा का असर लगता है आख़िर-ए-उम्र भी आग़ाज़-ए-सफ़र लगता है ये समुंदर है मगर सोख़्ता-जाँ शाइर को किसी मजबूर का इक दीदा-ए-तर लगता है सुब्ह-ए-ताज़ा है मुक़द्दर दिल-ए-मायूस ठहर शजर-ए-उम्मीद पे इनआ'म-ए-समर लगता है मैं ज़बाँ-बंदी का ये अहद नहीं तोडूँगा हाँ मगर इस दिल-ए-गुस्ताख़ से डर लगता है हमें इदराक-ए-मोहब्बत तो नहीं है लेकिन इतना मालूम है इस खेल में सर लगता है