थके जिस्मों थकी रूहों के सब मा'नी बदलते हैं विसाल-ए-हिज्र के मौसम में उर्यानी बदलते हैं घरों में बैठे बैठे ज़ंग लग जाता है जिस्मों को चलो तालाब का ठहरा हुआ पानी बदलते हैं बदलती देखी है दुनिया फ़क़त आँखों ने ही अब तक चलो इक काम करते हैं कि हैरानी बदलते हैं बड़ी मुश्किल से दो मिसरों में कोई रब्त बनता है कभी ऊला बदलते हैं कभी सानी बदलते हैं यक़ीनन यूँ नहीं होता मगर इक बद-गुमानी है कोई हम से कहे आओ परेशानी बदलते हैं तुम्हारा ज़िक्र करते हैं दर-ओ-दीवार से अक्सर बड़ी मुश्किल से हम इस घर की वीरानी बदलते हैं इसी मौसम में तो लगता है पहरा मेरी आँखों पर यही मौसम तो दरियाओं की तुग़्यानी बदलते हैं मियाँ 'वाहिद' किसी दिन बल्ली-माराँ हो के आते हैं मियाँ नाैशा से मिल कर ये पशेमानी बदलते हैं