वस्ल की रात है आख़िर कभी उर्यां होंगे मैं पशेमाँ हूँ तो क्या वो न पशेमाँ होंगे आप मर जाऊँगा तू आ कि न आ ओ ज़ालिम आज वो दिन है कि मुझ पर मिरे एहसाँ होंगे ग़ैर की शक्ल बनेंगे कभी ख़ुद उन का शौक़ हम भी देखें तो कहाँ तक न वो पुरसाँ होंगे दिल जो रूठा तो मनाने से कहीं मनता है ये सितम बाइस-हसरत तुझे ऐ जाँ होंगे आज बहरूप अदू का है बनाया मैं ने अब तो वो भी मिरे अंदाज़ पे क़ुर्बां होंगे उन को पहनेंगे मिरे दश्त-ए-जुनूँ के काँटे ये वो दामन हैं कि आख़िर को गरेबाँ होंगे बरहमी दूरी-ए-जानाँ में उन्हें होगी 'नसीम' मेरे नाले असर-ए-फ़िक्र-ए-ग़ज़ल-ख़्वाँ होंगे