वस्ल में फेर के मुँह हाए किसी का कहना हम न मानेंगे न मानेंगे किसी का कहना एक दुश्मन है कि तुम सुनते हो उस का कहना एक मैं हूँ कभी होता नहीं मेरा कहना दिलरुबा कहता है ऐ यार दुलारा कहना एक तो नाम हैं दो फिर तुझे क्या क्या कहना हम मनाते हैं तुम्हें बहर-ए-ख़ुदा मन जाओ मान लो मान लो ऐ जान हमारा कहना ज़ेब-ए-महफ़िल भी हो तुम ज़ीनत-ए-गुलशन भी हो तुम चमन-आरा कि तुम्हें अंजुमन-आरा कहना एक ही वार में सर तन से जुदा कर डाला वाह ऐ ख़ंजर-ए-सफ़्फ़ाक तिरा क्या कहना देख कर उन को मिरा शौक़ ये कहना है मुझे तुझ को मंज़ूर है जो कुछ उन्हें कहना कहना मुझ को इक जाम पिला कर ये कहा साक़ी ने हो अगर और ज़रूरत तो दोबारा कहना दर्द-ए-दिल दर्द-ए-जिगर देखता जा ऐ साक़ी क्या कहा क्या कहा फिर कहना दोबारा कहना तौबा करने का कहा मैं ने तो साक़ी ने कहा क्या कहा क्या कहा फिर कहना दोबारा कहना जो बुरा कहते हैं कहने दो उन्हें ऐ 'साबिर' हक़ तो ये है कि मिरे हक़ में है अच्छा कहना