वतन को कुछ नहीं ख़तरा निज़ाम-ए-ज़र है ख़तरे में हक़ीक़त में जो रहज़न है वही रहबर है ख़तरे में जो बैठा है सफ़-ए-मातम बिछाए मर्ग-ए-ज़ुल्मत पर वो नौहागर है ख़तरे में वो दानिश-वर है ख़तरे में अगर तशवीश लाहक़ है तो सुलतानों को लाहक़ है न तेरा घर है ख़तरे में न मेरा घर है ख़तरे में जहाँ 'इक़बाल' भी नज़्र-ए-ख़त-ए-तनसीख़ हो 'जालिब' वहाँ तुझ को शिकायत है तिरा जौहर है ख़तरे में