वतन से दूर यारान-ए-वतन की याद आती है क़फ़स में हम-नवायान-ए-चमन की याद आती है ये कैसा ज़ुल्म है फिर साया-ए-दीवार-ए-ज़िन्दाँ में वतन के साया-ए-सर्व-ओ-समन की याद आती है तसव्वुर जिस से रंगीं है तख़य्युल जिस से रक़्साँ है ग़ज़ाल-ए-हिंद-ओ-आहू-ए-ख़ुतन की याद आती है कभी लैला-ओ-शीरीं गाह हीर-ओ-सोहनी बन कर निराले यार की बाँके सजन की याद आती है कहाँ का ख़ौफ़-ए-ज़िन्दाँ दहशत-ए-दार-ओ-रसन कैसी क़द-ए-माशूक-ओ-ज़ुल्फ़-ए-पुर-शिकन की याद आती है