वे सूरतें इलाही किस मुल्क बस्तियाँ हैं अब देखने को जिन के आँखें तरसतियाँ हैं आया था क्यूँ अदम में क्या कर चला जहाँ में ये मर्ग-ओ-ज़ीस्त तुझ बिन आपस में हँसतियाँ हैं क्यूँकर न हो मुशब्बक शीशा सा दिल हमारा उस शोख़ की निगाहें पत्थर में धँसतियाँ हैं बरसात का तो मौसम कब का निकल गया पर मिज़्गाँ की ये घटाएँ अब तक बरसतियाँ हैं लेते हैं छीन कर दिल आशिक़ का पल में देखो ख़ूबाँ की आशिक़ों पर क्या पेश-दस्तियाँ हैं इस वास्ते कि हैं ये वहशी निकल न जावें आँखों को मेरी मिज़्गाँ डोरों से कसतियाँ हैं क़ीमत में उन के गो हम दो जग को दे चुके अब उस यार की निगाहें तिस पर भी सस्तियाँ हैं उन ने कहा ये मुझ से अब छोड़ दुख़्त-ए-रज़ को पीरी में ऐ दिवाने ये कौन मस्तियाँ हैं जब मैं कहा ये उस से 'सौदा' से अपने मिल के इस साल तू है साक़ी और मय-परस्तियाँ हैं