वाइज़ की ज़िद से रिंदों ने रस्म-ए-जदीद की या'नी मह-ए-सियाम की पहली को ईद की मरने के बा'द भी ये तमन्ना थी दीद की आँखें हुईं न बंद तुम्हारे शहीद की फिर जिंस-ए-दिल न अपनी किसी ने ख़रीद की सच है कि क़द्र कुछ नहीं माल-ए-मज़ीद की ये वक़्त-ए-चश्म-पोशी-ए-अहल-ए-वफ़ा नहीं जान आँखों में है यार तिरे महव-ए-दीद की मिस्सी दहान-ए-तंग की देखी तो शक हुआ अंगुश्तरी है कोई नगीन-ए-हदीद की वो शोख़ जंग-जू जो हमारे गले मिला मातम मुख़ालिफ़ों ने मुहिब्बों ने ईद की आलम है चश्म-ए-शौक़ का हर एक ज़र्रे में बर्बाद ख़ाक है ये किसी महव-ए-दीद की क्या बे-नुक़त सुनाई हैं उस तिफ़्ल-ए-शौक़ ने क़ासिद ने नामा दे के तलब जब रसीद की क्यूँ वो सवाल-ए-वस्ल का देते नहीं जवाब हाजत है उन के क़ुफ़्ल-ए-दहन को कलीद की ग़ुस्से से आग हो के हुए तर पसीने में इत्र-ए-बहार हुस्न की अपने कशीद की किस रोज़ मैं ने मुसहफ़-ए-रुख़्सार मस किया झूटी न क़समें खाओ कलाम-ए-मजीद की देखे न पीर-ज़ाल जहाँ को उठा के आँख मर्दों में आबरू नहीं कुछ ज़न-मुरीद की बे-शुबह ऐ 'क़लक़' सग-ए-दुनिया है वो बशर जिस ने ब-दिल इताअ'त-ए-नफ़्स-ए-पलीद की