वीरान सा अब हूँ जो मैं ऐसा तो नहीं था होता था समुंदर कभी सहरा तो नहीं था चेहरे पे रक़म था जो वो पढ़ ही नहीं पाया सब जानता था इतना भी सादा तो नहीं था आँगन में मिरे दिल के चली आई थी कल शाम थी याद तुम्हारी कोई झोंका तो नहीं था चुप-चाप तसव्वुर में चले आते किसी रोज़ सोचों पे मेरी जाँ कोई पहरा तो नहीं था हम दर्द का अफ़्साना सुनाते उसे क्यूँ-कर ज़ाहिर में जो अपना था पर अपना तो नहीं था सब चल दिए मौजों के हवाले उसे कर के माना कि भँवर में था वो डूबा तो नहीं था वो जिस को था सीने का हर इक ज़ख़्म दिखाया बातों पे मिरी उस को भरोसा तो नहीं था कर के मुझे बर्बाद गया है वो सितमगर गुलशन यूँही दिल का मिरे उजड़ा तो नहीं था क्यों रोता है अब हिज्र में तेरे वो 'मसर्रत' जाते हुए उस ने तुझे रोका तो नहीं था