वो आज़माएँ मुझे उन को आज़माऊँ मैं फिर आँधियों के लिए इक दिया जलाऊँ मैं फिर अपनी याद की पुरवाइयाँ भी क़ैद करे वो चाहता है अगर उस को भूल जाऊँ मैं उदास आँखों को सौग़ात दे के अश्कों की ये उस ने ख़ूब कहा है कि मुस्कुराऊँ मैं मियाँ ये ज़ीस्त की सच्चाइयों के क़िस्से हैं कोई फ़साना नहीं है जिसे सुनाऊँ मैं फ़साद, क़त्ल, तअस्सुब, फ़रेब, मक्कारी सफ़ेद-पोशों की बातें हैं क्या बताऊँ मैं इसी को कहते हैं मेराज क्या मोहब्बत की वो याद आए तो फिर ख़ुद को भूल जाऊँ मैं जमाल-ए-यार पे ग़ज़लें तो हो चुकी हैं बहुत ये सोचता हूँ उसे आईना दिखाऊँ मैं