वो आँख अजब रौ में बहा ले गई हम को इक मौज थी साहिल से उठा ले गई हम को कब शौक़ से जाता है कोई राह-ए-जुनूँ पर वो तो तिरी नज़रों की ख़ता ले गई हम को इस शहर में हम जुर्म-ए-मोहब्बत के लिए आए और दश्त में तक़्सीर-ए-वफ़ा ले गई हम को हम कौन क़लंदर थे कि जा मिलते ख़ुदा से पर इक बुत-ए-काफ़िर की दुआ ले गई हम को इक ज़ीस्त हमें जिस ने कहीं का नहीं रक्खा इक मौत कि सीने से लगा ले गई हम को ले जाता था हर यार हमें अपना समझ कर फिर यूँ हुआ इक रोज़ क़ज़ा ले गई हम को ख़ुशबू तिरे आँचल की थी या तेरे बदन की संग अपने बहर-हाल उड़ा ले गई हम को हम दिल थे और इक दिल के लिए आए थे 'सागर' पर मौज-ए-ग़म-ए-दहर बहा ले गई हम को