वो आएँगे तो खिलेंगे नशात-ए-वस्ल के फूल शब-ए-फ़िराक़ में उन की सख़ावतों को न भूल यही है क्या तिरी तक़सीम-ए-गुल्सिताँ का उसूल किसी को फूल मिलें और किसी को ख़ार बबूल ज़मीं का रंग तो हम-रंग-ए-दाम होता है भटक न जाएँ कहीं मेरी चाहतों के रसूल तुम्हारे पास तो सिम-सिम का इस्म-ए-आज़म है ये क्या कि बंद है अपने लिए ही बाब-ए-क़ुबूल किसी का दीदा-ए-ख़ूनीं भी रंग ला न सका किसी के शोला-ए-तन से पिघल गए हैं उसूल बुझाएँ प्यार मोहब्बत के शबनमिस्ताँ से न बैठ जाए गुल-ए-जाँ पे नफ़रतों की ये धूल भरी बहार में जैसे फुवार पड़ती है कुछ इस तरह मिरे दिल पर है शाइरी का नुज़ूल उलझ गए कभी संगीं हक़ीक़तों से 'जमील' कभी किसी के तसव्वुर से हो गए हैं मलूल