वो और कुछ नहीं इक तर्ज़ गुफ़्तुगू की थी कहा ये किस ने कभी तेरी आरज़ू की थी कभी भी अपनी तबीअत न जंग-जू की थी वहाँ अना की नहीं बात आबरू की थी जो ज़ख़्म था तो ज़रा ख़ून ही टपकता था जलन तमाम तिरे सोज़न-ए-रफ़ू की थी तिरा जमाल था या था तिलिस्म-ए-होश-रुबा ललक अजीब से मुझ में भी जुस्तुजू की थी समुंदरों का वो ग़ुस्सा था या ज़मीं का इ'ताब तमाम शोरिश-ए-तूफ़ाँ मिरे लहू की थी गुमाँ गुमाँ है गुमाँ ही रहे तो अच्छा है सदा-ए-क़ुलक़ुल-ए-मीना तलब सुबू की थी दहान-ए-ज़ख़्म कहाँ था 'शमीम' क्या मा'लूम लहू उछाल की शिद्दत रग-ए-गुलू की थी