वो बेवफ़ा कोई दम और जो ठहर जाता रह-ए-तलब में ये दिल यूँ न दर-ब-दर जाता तिरी गली में फ़साने बिखेरने के लिए ये लाज़मी था कि हम सा ही बे-ख़तर जाता तुझ अजनबी का हो क्या ग़म कि इस अंधेरे में मैं अपने-आप को ख़ुद देखता तो डर जाता तुम्हारी बंदिश-ए-आदाब से नज़र जागी मैं बे-ख़बर तो यूँही राह से गुज़र जाता मुझी में हो न किसी आँच की कमी वर्ना कोई सुख़न तो तिरी रूह तक उतर जाता कोई निगाह तो होती सुकूँ-शनास कभी कोई नफ़स तो किसी मोड़ पर ठहर जाता वो बू-ए-गुल है तो हम मौजा-ए-सबा 'अंजुम' वो हम से बच के चला था मगर किधर जाता