वो भी हमें सरगिराँ मिले हैं दुनिया के अजीब सिलसिले हैं गुज़रे थे न चश्म-ए-बाग़बाँ से जो अब की बहार गुल खिले हैं रुकता नहीं सैल-ए-गिर्या-ए-ग़म ऐ ज़ब्त ये सब तिरे सिले हैं कल कैसे जुदा हुए थे हम से और आज किस तरह मिले हैं पास आए तो और हो गए दूर ये कितने अजीब फ़ासले हैं सुनता नहीं कोई 'सैफ़' वर्ना कहने को तो सैंकड़ों गिले हैं