वो भी कहता था कि उस ग़म का मुदावा ही नहीं दिल जलाने के अलावा कोई चारा ही नहीं ज़ोर-ए-वहशत भी अगर कम हो तो चलना है मुदाम सर छपाने के लिए दश्त में साया ही नहीं जल के हम राख हुए हैं कि बने हैं कुंदन जौहरी बन के किसी शख़्स ने परखा ही नहीं गर्द-ए-शोहरत को भी दामन से लिपटने न दिया कोई एहसान ज़माने का उठाया ही नहीं मेरी आँखों में वही शौक़-ए-तमाशा था 'नईम' उस ने झुक कर मिरी तस्वीर को देखा ही नहीं