वो जो दर्द था तिरे इश्क़ का वही हर्फ़ हर्फ़-ए-सुख़न में है वही क़तरा क़तरा लहू बना वही रेज़ा रेज़ा बदन में है वो नसीम जाने कहाँ गई वो गुलाब जाने किधर खिले कोई आग पिछली बहार की मिरे क़ल्ब में न चमन में है यही वक़्त सैल-ए-रवाँ लिए मिरी कश्तियों को डुबो गया कोई लहर आब-ए-हयात की अभी गंग में न जमन में है दम-ए-सुब्ह आज है दोपहर न वो चहचहे न वो ज़मज़मे वो परिंदे उड़ के कहाँ गए कोई शोर गाँव न बन में है जो सितारा क़िब्ला-ए-राह था वो शरार बन के बुझा 'नईम' ये ज़मीन चादर-ए-ख़ाक है मिरा चाँद जब से गहन में है