वो बुझ गया तो अँधेरों को भी मलाल रहा वो इक चराग़ जो जलने में भी बे-मिसाल रहा कभी भुला न सका दिल-शिकस्तगी अपनी जुड़ा तो जुड़ के भी उस आइने में बाल रहा मिरी हयात ने हातिम बना दिया मुझ को हर इक सवाल के बा'द इक नया सवाल रहा हमेशा मैं ने भी नाकामियों से काम लिया तमाम-उम्र मिरा 'मीर' जैसा हाल रहा तुम्हारे बा'द किसी से फ़रेब खाया नहीं तुम्हारा मुझ से बिछड़ना भी नेक-फ़ाल रहा ग़मों को हावी न होने दिया कभी दिल पर शब-ए-फ़िराक़ भी ज़िक्र-ए-शब-ए-विसाल रहा कहाँ हरम है किधर का'बा है किधर रुख़ है नमाज़-ए-इश्क़ में उस का कहाँ ख़याल रहा ग़ज़ल उसी की थी हावी तमाम ग़ज़लों पर वहाँ भी रौनक-ए-बज़्म-ए-सुख़न 'कमाल' रहा