वो इक सदी का बनाए था इंतिज़ाम तमाम कि एक पल में हुई उम्र-ए-ना-तमाम तमाम अभी मैं कर भी न पाया था एक जाम तमाम निदा ये आई कि बस हो चुकी ये शाम तमाम मैं अपनी आग में जलता हूँ मेरा हाल न पूछ मिरा नफ़स किया करता है मेरा काम तमाम हवा ही ऐसी चली थी उखड़ गए खे़मे न कर सके थे अभी अर्सा-ए-क़ियाम तमाम ख़ुशी हमारी बजा है मुबाह फ़ख़्र हमें लिखी है मुम्लिकत-ए-ग़म हमारे नाम तमाम ठिकाने लग गईं 'अफ़सर' बची-खुची साँसें चलो कि हो ही गया आज ये भी काम तमाम