वो हमें कैसे भला अहल-ए-वफ़ा मानेगा ख़ुद पे नाज़ाँ है अदाओं का सिला मानेगा बे-यक़ीं है हम अगर उस के लिए जान भी दें क़ब्र को शो'बदा-बाज़ों का गढ़ा मानेगा अक़्ल अकबर है तो क्या दिल भी है शहज़ादा-सलीम इश्क़ में कौन बुज़ुर्गों का कहा मानेगा पुर्सिश-ए-हाल नहीं है कोई सहरा की तरह क्यूँ न बस्ती को जुनूँ दश्त-नुमा मानेगा जो भी देता है किसी और से दिलवाता है हर कोई कैसे भला रब की अता मानेगा