ज़ाइक़े पैदा तबीअ'त में लचक करते हैं आ तुझे वाक़िफ़-ए-क़ंद और नमक करते हैं आओ चलते हैं जहाँ साज़िश-ए-अहबाब न हो दुश्मनी का ये सफ़र दोस्ती तक करते हैं वो जो इंसान के ही बस में है उस पर इंसाँ जाने किस मुँह से शिकायात-ए-फ़लक करते हैं खुलने ही वाला है बस अंधी अक़ीदत का भरम हम से कुछ लोग बहुत छान-फटक करते हैं शिर्क तो ख़्वाब में भी हम से नहीं हो सकता हम तो या-रब तिरी क़ुदरत पे भी शक करते हैं