वो जो छुप जाते थे काबों में सनम-ख़ानों में उन को ला ला के बिठाया गया दीवानों में फ़स्ल-ए-गुल होती थी क्या जश्न-ए-जुनूँ होता था आज कुछ भी नहीं होता है गुलिस्तानों में आज तो तल्ख़ी-ए-दौराँ भी बहुत हल्की है घोल दो हिज्र की रातों को भी पैमानों में आज तक तंज़-ए-मोहब्बत का असर बाक़ी है क़हक़हे गूँजते फिरते हैं बयाबानों में वस्ल है उन की अदा हिज्र है उन का अंदाज़ कौन सा रंग भरूँ इश्क़ के अफ़्सानों में शहर में धूम है इक शोला-नवा की 'मख़दूम' तज़्किरे रस्तों में चर्चे हैं परी-ख़ानों में