वो जो देखे थे मैं ने कभी ख़्वाब में बह गए फूल सारे वो सैलाब में ना-ख़ुदा की जो निय्यत थी ज़ाहिर हुई जब भी कश्ती मिरी आई गिर्दाब में राज़ अब तक किसी पे न ये खुल सका मर गईं मछलियाँ कैसे तालाब में जितने भी ज़ख़्म थे ख़ुद-ब-ख़ुद भर गए जब से देखा है इक दाग़ महताब में एक मुद्दत से हम उन से कट हैं गए तज़्किरे फिर भी होते हैं अहबाब में अपनी हर बात 'रोबीना' हद में रही बंद हैं हम तो अख़्लाक़-ओ-आदाब में