वो जो दिन हिज्र-ए-यार में गुज़रे कुछ तड़प कुछ क़रार में गुज़रे वही हासिल थे ज़िंदगानी के चार दिन जो बहार में गुज़रे क्या किया तुम से कैसे कैसे वहम दिल-ए-बे-ए'तिबार में गुज़रे कितनी कलियों के कितने फूलों के क़ाफ़िले नौ-बहार में गुज़रे ज़िंदगी के लिए मिले थे जो दिन मौत के इंतिज़ार में गुज़रे हसरतों के हुजूम में तिरी याद जैसे महमिल ग़ुबार में गुज़रे हम चमन में रहे तो ऐसे रहे जैसे दिन ख़ारज़ार में गुज़रे ग़म-ए-जानाँ से बच रहे थे जो दिन वो ग़म-ए-रोज़गार में गुज़रे ज़िंदगी की यही तमन्ना थी आप की रहगुज़ार में गुज़रे जाँ-निसारों का जाएज़ा था वहाँ हम भी पिछली क़तार में गुज़रे काटे कटता नहीं वो वक़्त 'रज़ा' जो किसी इंतिज़ार में गुज़रे