वो जो इक शख़्स वहाँ है वो यहाँ कैसे हो हिज्र पर वस्ल की हालत का गुमाँ कैसे हो बे-नुमू ख़्वाब में पैवस्त जड़ें हैं मेरी एक गमले में कोई नख़्ल जवाँ कैसे हो तुम तो अल्फ़ाज़ के नश्तर से भी मर जाते थे अब जो हालात हैं ऐ अहल-ए-ज़बाँ कैसे हो आँख के पहले किनारे पे खड़ा आख़िरी अश्क रंज के रहम-ओ-करम पर है रवाँ कैसे हो भाव-ताव में कमी बेशी नहीं हो सकती हाँ मगर तुझ से ख़रीदार को नाँ कैसे हो मिलते रहते हैं मुझे आज भी 'ग़ालिब' के ख़ुतूत वही अंदाज़-ए-तख़ातुब कि मियाँ कैसे हो