वो जो महफ़िल में ख़ूब हँसता था हाए वो शख़्स कितना तन्हा था चुप का ये तजरबा भी कैसा था सारा घर साएँ साएँ करता था तुम से रूठा तो था ज़रूर मगर ख़ुद से डर कर मैं घर से भागा था जितने आँसू थे मेरे अपने थे और हर क़हक़हा पराया था हुस्न क्या ज़ेहन की ज़रूरत थी इश्क़ क्या जिस्म का तक़ाज़ा था पक चुकी फ़स्ल काट अब इस को खेत वहमों का तू ने बोया था तुम ने जिस की दुआएँ माँगी थीं अब्र वो पर्बतों पे बरसा था मेरे अंदर का मैं विसाल की शब मुझ से भी तेज़ तेज़ दौड़ा था हाए वो दिन 'नरेश' जब उस ने ख़त न लिखिए ये ख़त में लिक्खा था